जनजातीय समाज सहज, सरल, समर्पित समाज है। स्वत्व, स्वाभिमान, शौर्य और पराक्रम उनकी विशेषता है। यही वजह है कि अंग्रेजों और साम्राज्यवादी ताकतों ने कभी नहीं चाहा कि यह समाज शिक्षित हो। यदि वे शिक्षित हो गए तो अपने नैसर्गिक विशेष गुणों के साथ वे प्रगति शिखर पर पहुँच सकते हैं। इसीलिए पराधीन काल में जनजातीय क्षेत्रों में पाठशालाएँ नहीं थीं, यदि किसी ने उन्हें शिक्षित करने का प्रयास भी किया तो उसे दंडित किया जाता था।
परतंत्रता के उस समय की एक ऐसी ही घटना है, जो रोंगटे खड़े कर देती है।इसमें शिक्षक नाना भाई और वीर बाला काली बाई(Kalibai) की वीरता की अनूठी गाथा है।
राजस्थान(Rajasthan) के डूंगरपुर(Dungarpur) जिले में वनवासियों के मध्य शिक्षा के प्रसार का काम भी ऐसा था, जो डूंगरपुर (Dungarpur)राज्य की आँखों में खटक गया। उन्हें इस भय ने सताया कि अगर वनवासी पढ़-लिख गए तो वे अपने अधिकारों की माँग करेंगे। भयभीत राजा ने अपने राज्य के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बंद करने का आदेश दिया। इन वनवासी क्षेत्रों में नानाभाई शिक्षा के प्रसार कार्य में जुटे हुए थे। वे गाँव-गाँव जाकर पाठशालाएँ खोलते और वनवासियों को शिक्षा का महत्त्व समझाते। डूंगरपुर के महाराज लक्ष्मण सिंह ने उस क्षेत्र में 25 वर्ष पुराने एक छात्रावास को बंद करवाने के बाद नानाभाई को अंग्रेजों के अनुसार सूचना भेजी कि वे पाठशालाएँ बंद करें। समस्त वनवासी क्षेत्र में पुलिस सहित डूंगरपुर के मजिस्ट्रेट और फौज के सिपाही वनवासियों को आतंकित करने लगे, लेकिन नानाभाई नहीं माने। मजिस्ट्रेट 19 जून, 1947 के दिन रास्तापाल की पाठशाला पहुँचे, जहाँ नानाभाई का घर भी था। उस समय नानाभाई एक अन्य अध्यापक सेंगाभाई से बातचीत कर रहे थे। मजिस्ट्रेट ने उन्हें बुलाया और धमकाते हुए आदेश दिया कि “पाठशाला बंद करें और चाबी हमें थमा दी जाए।”
नानाभाई (Nanabhai)ने यह बात मानने से मना कर दिया। अंग्रेज पुलिस ने नानाभाई (Nanabhai)और उनके सभी साथी अध्यापकों को बेरहमी से पीटा और पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगे। रास्ते में बंदूक का कुंदा नानाभाई के मर्मस्थल पर लगने से उनकी तत्काल मृत्यु हो गई। सेंगाभाई भी अत्याचार सह न सके और बेहोश हो गए। सेंगाभाई की कमर में रस्सी बाँधी और चलते ट्रक के पीछे घसीटने लगे। बंदूक से हवाई फायर करके वनवासियों को आतंकित किया गया, ताकि कोई प्रतिरोध न करे।
एक नन्ही बालिका, जो उसी समय घास काटकर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, “अरे, तुम मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो। छोड़ दो, छोड़ दो।” हाथ में हँसिया, पाँव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बंदूकों से घबराई, न पुलिस की डरावनी धमकियों से। यह देख वनवासी भी उत्साहित हो उठे और उसके पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बंदूक तानकर कहा, “ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दूँगा।” पर उसने अनसुना कर दिया। ट्रक के पीछे दौड़ते हुए उसने अपने हँसिए से रस्सी काट दी, जिससे सेंगाभाई को घसीटा जा रहा था। निर्दयी पुलिस ने दस वर्षीय बच्ची पर गोली चला दी। कालीबाई का शरीर निर्जीव होकर लुढ़क गया।
कालीबाई (Kalibai)के बलिदान होते ही वनवासियों ने मारू बाजा बजाना शुरू कर दिया और पुलिस की बंदूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के लिए दौड़े। गोलियों से कई भील महिलाएँ भी घायल हुईं। वनवासियों की टोली को देख पुलिस के सिपाही और मजिस्ट्रेट जीप में सवार होकर भाग गए।
मारू की आवाज सुनते ही हजारों मीणा-भील एकत्र हो गए और कालीबाई और नानाभाई को इस आशा से तीस मील दूर अस्पताल में ले गए कि शायद डॉक्टर उन्हें बचा लें, पर व्यर्थ। कालीबाई के साथ घायल हुई अन्य भील महिलाएँ नवलीबाई(Navlibai), मोगीबाई(Mogibai), होमलीबाई(Homalibai), लालीबाई तथा सेंगाबाई बच गई, पर डॉक्टर कालीबाई और नानाभाई को बचा न सके। डूंगरपुर में नानाभाई खाट और कालीबाई(Kalibai) की स्मृति में उद्यान बनाया गया और उनकी मूर्तियाँ भी स्थापित की गई हैं। शिक्षित कर समाज को जागृत करनेवाले नाना भाई और वीर बाला कालीबाई(Kalibai) को नमन।