उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जनसंख्या नियंत्रण नीति लागू करने के फैसले ने इस विषय को राजनैतिक गलियारों में चर्चा से लेकर आम लोगों के बीच सामाजिक विमर्श का केंद्र बना दिया है। राजनैतिक दल और अन्य संगठन अपने अपने वोटबैंक और राजनैतिक नफा नुकसान को ध्यान में रखकर इसका विरोध अथवा समर्थन कर रहे हैं। लेकिन अगर राजनीति से इतर बात की जाए तो यह विषय अत्यंत गम्भीर है जिसे वोटबैंक की राजनीति ने संवेदनशील भी बना दिया है।
दरअसल आज भारत जनसंख्या के हिसाब से विश्व में दूसरे स्थान पर आता है और यूएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2027 तक भारत विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनकर इस सूची में पहले स्थान पर आ जाएगा। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि जनसंख्या के विषय में पहले स्थान पर आने वाले भारत के पास इतने संसाधन और इतनी जगह है जिससे यह भारतमूमि अपने सपूतों को एक सम्मान एवं सुविधाजनक जीवन दे सके ? तो आइए इसे कुछ आंकड़ों से समझने की कोशिश करते हैं। भारत के पास विश्व की कुल भूमि क्षेत्र का मात्र 2.4 प्रतिशत है जबकि भारत की आबादी दुनिया की कुल आबादी का 16.7 प्रतिशत है। यहाँ यह बता दिया जाए कि विश्व के डेवलप्ड यानी विकसित देशों की सामूहिक जनसंख्या 17 प्रतिशत के आसपास है और अकेले भारत की जनसंख्या 16.7 प्रतिशत । इस विषय का इससे भी अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि भारत के एक राज्य की जनसंख्या की तुलना कई देशों की कुल जनसंख्या से की जा सकती है। जैसे उत्तरप्रदेश की जनसंख्या ब्राजील, महाराष्ट्र की मेक्सिको, बिहार की फिलीपींस, पश्चिम बंगाल की वियतनाम, मध्यप्रदेश और तमिलनाडु की तुर्की, कर्नाटक की इटली के बराबर आदि।
यह आंकड़े बता रहे हैं कि स्तिथि कितना गंभीर रूप ले चुकी है। ऐसे ही कुछ और दिलचस्प आंकड़ों की बात की जाए तो विश्व का सबसे अधिक क्षेत्रफल वाला देश रूस जनसंख्या के मामले में नौंवे स्थान पर है। और जो चीन जनसंख्या के मामले में पहले स्थान पर आता है वो चीन क्षेत्रफल के हिसाब से विश्व में चौथे स्थान पर आता है जबकि भारत आठवें स्थान पर। यानी भारत के पास भूमि कम है लेकिन जनसंख्या ज्यादा है। कल्पना कीजिए कि जब भारत यूएन की रिपोर्ट के अनुसार इन्हीं सीमित संसाधनों के साथ चीन को पछाड़ कर विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा तो क्या स्थिति होगी। क्या इन परिस्थितियों में कोई भी देश गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा जैसी समस्याओं से लड़कर अपने नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार लाने की कल्पना भी कर सकता है? लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस देश की राजनीति उस मोड़ पर पहुंच गई है जहाँ हर विषय वोटबैंक से शुरू हो कर वोटबैंक पर ही खत्म हो जाता है।
खेती किसानी हो या फिर शिक्षा स्वास्थ्य अथवा जनसंख्या जैसे मूलभूत विषय ही क्यों न हो सभी को वोटबैंक की राजनीति से होकर गुजरना पड़ता है। हमारे राजनेता अपने राजनैतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर कुछ सोच ही नहीं पाते। विगत कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि सत्ता धारी दल अगर किसी समस्या का समाधान खोजने के प्रयास में कोई कानून या नीति लेकर आता है तो विपक्ष उसके विरोध में उतर आता है। इस समय देश वाकई में अजीब दौर से गुज़र रहा है जहाँ समस्या से अधिक विकट देश के मौजूदा हालात हो गए हैं। क्योंकि एक तरफ देश में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून लाना वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यक प्रतीत हो रहा है तो दूसरी तरफ इस विषय का राजनीतिकरण कर बड़े पैमाने पर इसका विरोध होने की आशंका भी बनी हुई है। इसलिए जनसंख्या से संबंधित कोई भी कानून बनाने से पहले आवश्यक है कि इस विषय में जन जागरूकता लाई जाए। इससे लोग बढ़ती जनसंख्या के दुष्प्रभावों और सीमित परिवार के फायदों से परिचित ही नहीं होंगे बल्कि इस विषय में दुष्प्रचार से भृमित होने से भी बचेंगे।
हालांकि उत्तरप्रदेश सरकार की प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण नीति में जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने की दिशा में सोचा गया है। इसलिए प्रस्तावित नीति में परिवार नियोजन करने वाले परिवारों को सरकार की ओर से विशेष सुविधाएं दी जा रही हैं तो अधिक बच्चों वाले परिवारों को इन सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है। लेकिन इस विषय को लेकर राजनैतिक बयानबाजी अपने चरम पर है। उत्तरप्रदेश के उलट अगर भारत के ही राज्य केरल का उदाहरण लिया जाए तो केरल में सबसे कम सकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर होने के साथ साथ उच्चतम जीवन प्रत्याशा और उच्चतम लिंगानुपात है। यानी जनसंख्या की वृद्धि नियंत्रण में है, लोगों का जीवन स्तर बेहतरी की ओर अग्रसर है और लड़का लड़की का अनुपात भी देश में सबसे अधिक है। गौरतलब है कि केरल केवल जनसंख्या के मामले में ही बेहतर नहीं है वो साक्षरता के मामले में भी सबसे अधिक साक्षरता दर के साथ भारत का अग्रणी राज्य है। जबकि उत्तरप्रदेश ना सिर्फ जनसंख्या के मामले में 29 वें पायदान पर आता है बल्कि लिंगानुपात में भी 26 वें पायदान पर आता है।
यहाँ यह बता दिया जाए कि केरल में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कोई कानून नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर हम यह समझें कि जनसंख्या को कानून से ही नियंत्रित किया जा सकता है तो ऐसा नहीं है। कानून अपने आप में अपर्याप्त रहेगा जब तक लोग उसे स्वेच्छा से स्वीकार न करना चाहें। इसलिए सरकार चाहे किसी राज्य की हो या केंद्र की जनसंख्या नियंत्रण जैसे विषय पर जल्दबाजी में कानून लाकर जनसंख्या को कितना नियंत्रित कर पाएगी यह तो समय बताएगा लेकिन बैठे बिठाए विपक्ष को एक मुद्दा जरूर दे देगी।
जैसे हमने प्लास्टिक को कानूनी तौर पर बैन करने से पहले से देश में प्लास्टिक मुक्ति को जन आंदोलन बनाया, देश को स्वच्छ रखने के लिए स्वच्छता को भी जन आंदोलन बनाकर उसमें जन जन की भागीदारी सुनिश्चित की उसी प्रकार जनसंख्या नियंत्रण के लिए भी कानून के साथ साथ जनजागरूकता के लिए विभिन्न अभियान चलाए ताकि लोग स्वेच्छा से इसमें भागीदार बनें और विपक्ष अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सके। जम्मू कश्मीर इसका सबसे बेहतर उदाहरण है। चूँकि वहाँ के लोग जागरूक हो चुके थे इसलिए जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटने के समय विपक्षी दलों के विरोध को जनता का समर्थन नहीं मिला। इसी प्रकार जम्मु कश्मीर के जिला विकास परिषद के चुनावों में भी स्थानीय लोगों ने राजनैतिक स्वार्थ से प्रेरित गुपकार गठबंधन को नकार दिया था। इसलिए जनसंख्या विस्फोट के दुष्परिणामों और सीमित परिवार के फायदों के प्रति अगर लोग जागरूक होंगे तो कोई दल कोई संगठन वोट बैंक की राजनीति नहीं कर पाएगा। अतः वर्तमान परिस्थितियों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून जितना जरूरी है उतना ही जनसमर्थन भी जरूरी है जो जनजागरण से ही संभव है।
डॉ. नीलम महेंद्र
लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं